प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम 1857 के दौरान 80 वर्ष के वीर योद्धा "ठाकुर कुंवर सिंह " की जीवनी || Biography of the oldest warrior Thakur Kunwar Singh during the first Indian freedom struggle of 1857
सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा लिखी कविता की कुछ पंक्तियां इश प्रकार है
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
*वीरो की अमर गाथा के अंधेरे पन्नो से*
भारत के पहले स्वतंत्रता आंदोलन के बारे में हम सब ने सुना और पढ़ा है। 1857 के प्रथम स्वन्त्रता संग्राम में देश के कई हिस्सों से अनेको वीरो और वीरांगनाओ ने अंग्रेजो को नाको चने चबवाया था ।
लेकिन क्या यह संग्राम सिर्फ उतने तक सीमित था, जितना हमने पढा और सुना है। क्या 1857 के संग्राम में केवल रानी लक्ष्मी बाई, बहादुर शाह जफर, और तात्या टोपे जैसे नामचीन वीरो ने ही अंग्रेजों से टक्कर ली थी ।
नही! ऐसा नही है, 1857 की क्रांति में भारत के अनेकों वीर पुत्रो ने अपने प्राण की आहुति दी, किन्तु उनका इतिहास केवल मात्र इतिहास के पन्नो में ही दम तोड़ते नजर आता है।
इस कहानी में एक ऐसे ही भारत के वीर पुत्र का जिक्र किया गया है जो 80 वर्ष की आयु में भी सेना की छोटी टुकड़ी साथ अंग्रेज़ो से टक्कर लिया और अंग्रेज़ो को अपने गढ़ से उखाड़ फेंकने में सफल भी हुआ ।
जी हाँ ,
उस वीर का नाम था ठाकुर कुंवर सिंह। कुंवर सिंह अन्याय विरोधी और स्वन्त्रता प्रेमी थे।
कुंवर सिंह का जन्म 13 नवंबर 1777 में बिहार के जगदीशपुर नाम के छोटे से रियासत में हुआ था। कुंवर सिंह जगदीशपुर के रजवाड़ो के खानदान से थे। उन्हें बचपन से ही अंग्रेजो की ग़ुलामी स्वीकार नही थी ।
अंततः वो चन्द रजवाड़ो और कुशल योद्धाओ के साथ मिल के अंग्रेजो के खिलाफ लड़ते रहे ।
वीर कुंवर सिंह छत्रपति शिवाजी से प्रेरित थे, जिसका मुख्य कारण था कि उनकी सेना में योद्धाओं की संख्यां में कमी।
सेना की कमी के कारण उनका युद्ध नीति था छापामार युद्ध, कुंवर सिंह अंग्रेजो की छोटी टुकडीओ पे अचानक से छापा मारके उनको ध्वस्त कर देते थे।
वीर कुंवर की सिंह की ये जंग की नीति तब तक चलती रही,जब तक कि प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की घोषडा ना हो गयी।
1857 की क्रांति के खबर मिलते ही सब कुछ बदल गया । अब कुंवर सिंह ने भी ठान ली थी कि , उत्तरी राज्यो से अंग्रेजो का सफाया कर देना है।
27 अप्रैल 1857 को वीर कुंवर सिंह ने दानापुर के बाघी सिपाहियो, भोजपुरी जवानों और अपने राजवाड़े योद्धाओ के साथ मिलके बिहार के आरा नगर पे कब्जा कर लिया।
अंग्रेजो के अनेकों कूटनीति और युध्यनीतियों के बाद भी कुंवर सिंह ने भोजपुर को ग़ुलामी के जंजीरो में बंधने नही दिया ।
इसके बाद अंग्रेजो की बड़ी फौज ने आरा पे चढ़ाई कर दी । फलस्वरूप कुंवर सिंह ने अपनी युद्ध कला छापेमारी युद्ध का कौशल जौहर दिखाते हुए अंग्रेजी सेना को बीबीगंज और बिहिया के बीच फैले जंगलो में घेर कर उनपे हमला कर दिया।
लेकिन इस बार अंग्रेजो की सेना इतनी बड़ी थी कि छापेमारी नीति पूर्ण रूप से सफल नही हुई। सेना की चिंता किये बिना कुंवर सिंह अंग्रेज़ो से लड़ते रहे ।
अंग्रेजी सेना की संख्या को देख कुंवर सिंह के सलाहकारों ने उनको पीछे हटने बोला।
भारत माँ का वीर पुत्र रामगढ़ के बहादुरों को साथ लेके बाँदा, रीवा, आजमगढ़, बनारस, बलिया, गाजीपुर, और गोरखपुर, में अंग्रेजो से छापेमारी युद्ध लड़ता रहा और हर बार अंग्रेजो को नाको चने चबाने पड़े और हर बार हार का स्वाद चखने मिला।
वीर कुंवर जब ये लड़ाइयां लड़ रहे थे तब उनकी उम्र 80 वर्ष थी। ये सबसे बड़ा प्रेणनादायी स्रोत था, जिससे अन्य वीरो को प्रेणना मिलती थी।
एक अंग्रेजी इतिहासकार होल्म्स ने अपने किताब में कुंवर सिंह के बारे में लिखा है कि, वीर कुंवर सिंह ने ब्योबृद्ध होने के बाद भी अध्भुत विरता के साथ युद्ध लड़ा ।
अंग्रेजो की खुशनसीबी थी कि 1857 में उनकी उम्र 80 साल थी कहीं अगर भारत का यह वीर पुत्र जवान होता तो अंग्रजो का इतिहास सन 1857 में ही दफन हो जाता।
वीर कुंवर सिंह बूढ़े योद्धा के नाम से अंग्रेजी सेना में काफी ज्यादा चर्चित थे और भय की स्थिति पैदा करते थे ।
23 अप्रैल 1858 को कुंवर सिंह वापस अपने गढ़ जगदीशपुर लौटे लेकिन अब जगदीशपुर पे अंग्रेजो का कब्जा हो चुका था।
वीर कुंवर सिंह अस्वस्थ होने के बाद भी ईस्ट इंडिया कंपनी को युद्ध के लिए ललकार दिया ।
उन्होंने अपने वीरता का परिचय देते हुए अंग्रेजो से घमासान युद्ध लड़ा जो भी गोरा सिपाही कुंवर सिंह से लड़ा वो मरा, इसका परिणाम ये निकला कि अंग्रेजी सेना में कोई ऐसा वीर नही बचा जो भारत के एक बूढ़े योध्या का सामना कर सके।
अंततः अंग्रेजो को पीछे हटना पड़ा और कुंवर सिंह ने अपने हाथों से यूनिन जैक नामक कंपनी का झंडा उखाड़ के फेक दिया।
कुंवर सिंह की युद्धनीति और रणनीति इतनी अद्भुत थी की अंग्रेजो को वो कभी समझ नही आया ।
एक बार तो आजमगढ़ के अतवर्लिया में जब अंग्रेजो से घमासान युद्ध चल रहा था तब कुंवर सिंह ने अपनी युद्धनीति के तहत अपने सैनिकों को पीछे हटने को बोला लेकिन अंग्रेजो को यह अपनी विजय होते दिखने लगी और अंग्रेजी सेना आम के बगीचों में आराम करने के लिए रुक गयी।
बस क्या था अचानक से कुंवर सिंह ने अपने सेना के साथ मिलके अंग्रेजो पे धावा बोल दिया, अंग्रेजी सेना इस छापेमारी के लिए बिल्कुल भी तैयार नही थी। जिसका फायदा वीर कुंवर सिंह को मिला ।
वीर कुंवर सिंह ने अपने सेना के साथ मिलके अनेको अंग्रेजी सैनिको को मौत के घाट उतार दिया। उनके हथियार भी लूट लिए, ये देख एक बार फिर अंग्रेजी सैनिक जान बचाकर भागने पे मजबूर हो गए।
वीर कुंवर सिंह 1857 से शुरू हुए क्रांति में अंग्रेजी सेना को 7 बार से भी ज्यादा हराया था। वीर कुंवर सिंह की युद्धनीति को धीरे धीरे अंग्रेजो ने अपनाना शुरु कर दिया।
एक बार जब वीर कुंवर सिंह बलिया के समीप शिवपुरी घाट से रात के समय अपने सेना के साथ गंगा नदी पार कर रहे थे तभी अंग्रेजो ने वीर कुंवर सिंह की ही रणनीति अपना कर भारत के वीर पुत्र पर चारो तरफ से घेर के गोलियां चलानी शुरु कर दी।
वीर कुंवर सिंह के बाएं हाथ मे अंग्रेजो की गोली लगी ।
वीर बहादुर बाबू कुंवर सिंह बिना समय नष्ट किये दाहिने हाथ मे तलवार उठाकर अपने बाये हाथ को काट कर गंगा माँ के सुपुर्द कर दिया।
इतना ही नही अत्यंत पीड़ा होने के बाद भी एक हाथ से तलवार उठा कर अंग्रेजो का सामना किया और अपने सेना को सकुशल अंग्रेजी सेना के घेराबंदी से बचा कर निकालने में सफल भी हुए।
ढलती उम्र, बीमारी, और कटे हाथ की पीड़ा को वीर कुंवर सिंह और ज्यादा दिन बर्दास्त नही कर पाये, और बीमार पड़ गए,
वीर कुंवर सिंह ने 26 अप्रैल 1858 को अंतिम सांस ली।
आशा करता हूं आपको इस वीर योद्धा की गाथा प्रेरीत करेगी।कृपया इसे अधिक से अधिक लोगो तक शेयर कर उन्हे इस वीर सपूत के अभूतपूर्व जीवनी से अवगत कराए।
धन्यवाद्
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